क्रिकेट ने खेल के तौर पर हम सबका बहुत मनोरंजन किया है। इस खेल से लोकप्रिय हुए खिलाड़ियों को लोगों ने अपनी पलकों पर भी बैठा लिया। हालांकि मैं क्रिकेट का जुनूनी दर्शक नहीं हूँ लेकिन उसकी एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती है जब खिलाड़ी अम्पायर के दिए हुये डिसीज़न का रिव्यू करता है, जिसे हम डिसीज़न रिव्यू सिस्टम कहते हैं। अगर अम्पायर का डिसीज़न रिव्यू के दौरान गलत साबित होता है तो उसे अपना निर्णय रद्द करना पड़ता है। क्रिकेट में डीआरएस की व्यवस्था 2008 के पहले नहीं थी हालांकि 1992 से अम्पायर टीवी रीप्ले के ज़रिए जरूर निर्णय देने लगे थे। 2008 से पहले तक अम्पायर के गलत निर्णय के चलते हार जीत की तस्वीर बदल जाती थी। मैं दावे के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन जब अम्पायर के निर्णय को रिव्यू करने का अधिकार अस्तित्व में आने की कोशिश कर रहा होगा तब किसी ने जरूर कहा होगा “अगर लोग अम्पायर के निर्णय पर ही उँगलियाँ उठाने लगे तो उसकी उपयोगिता क्या रह जाएगी?” लेकिन फिर किसी ने ये भी कहा होगा “अम्पायर है, वो भी किसी के प्रभाव में आ सकता है या उससे भी चूक हो सकती है।“ फिर तभी किसी ने इस पर और सोचकर प्रभावशाली नियम बनाने का सुझाव दिया होगा। अगर आप गौर से देखें तो पता चलेगा कि रिव्यू, थर्ड अम्पायर का ही एक परिष्कृत स्वरूप है, जहां खिलाड़ी अपने विवेक का प्रयोग करते हुए रिव्यू का निर्णय लेता है। जिस खेल में हार-जीत, पुरस्कार, प्रतिष्ठा जैसी चीजें दांव पर लगी हैं वहाँ खेल के दौरान रिव्यू को एक अधिकार के तौर पर दिया गया है। किन हम जिस लोकतंत्र के अधीन हैं जहां मामला भोजन, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा, विकास, रोजगार और गरीबी जैसे यहां विषयों का है! वहाँ नेता चुनने के बाद रिव्यू का अधिकार नहीं है। ले और है भी तो हर पाँच साल में। लेकिन आप उसे रिव्यू नहीं कह सकते। रिव्यू का मतलब ही है लिए गए निर्णय का परीक्षण, जिससे संभावित भूल को सुधारा जा सके। वैसे मान लीजिए अगर इस तरह के रिव्यू का अधिकार मिल जाए तो? तो रिव्यू की सूरत में आपको जिसका कार्यकाल अच्छा लगे आप उसे अगले साल तक के लिए फिर से मौका दे सकते हैं। वैसे हम हर साल वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर कई तरह की प्रक्रियाओं को देखते हैं, जैसे हमें अपना टैक्स रिटर्न भरना होता है, विभिन्न कम्पनीज़ अपने फायदा-नुकसान की रिपोर्ट जारी करती हैं, ऑडिट्स होते हैं, बजट पेश किया जाता है और वगैरह- वगैरह। तो फिर हर साल जनप्रतिनिधियों के काम-काज के ब्योरे के आधार पर उनका रिव्यू क्यूँ नहीं किया जाता? हाँ, हर साल चुनाव करके एक नया जनप्रतिनिधि चुनना एक महंगा और कठिन काम है लेकिन इसके भी अन्य विकल्प मौजूद हैं। मुझे नहीं लगता कि जिस देश में किसानों को डिजिटल बैंकिंग से जोड़ा जा सकता है वहाँ बिना चुनाव किए नेताओं के रिव्यू के रास्ते नहीं निकाले जा सकते। रामायण की चौपायी का एक हिस्सा है “भय बिनु प्रीति न होई रामा”, जिसका तात्पर्य है बिना भय के प्रेम नहीं होता। जनप्रतिनिधियों के हाथ में सत्ता की ताकत आने के बाद कई नेता अपनी जिम्मेदारियों और जनता से मुंह मोड़ लेते हैं। संविधान हमें हर पाँच वर्ष के लिये जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार देता है। इसलिए सत्ता के मद में चूर नेता पाँच साल तक निरंकुश हो जाते हैं और फिर विपक्ष कहता है आपने पाँच साल उन्हें मौका दिया, अब हमें देकर देखिए। पाँच साल!! पाँच साल में एक नवजात स्कूल जाने लगता है, पौधा पेड़ बन जाता है, कुछ नौकरी पाने योग्य तो कुछ अयोग्य हो जाते हैं। बहुत कुछ बदल जाता है। पाँच साल एक लंबा कार्यकाल है। इसलिए इस लोकतंत्र में जनता और लोकसेवकों को जनप्रतिनिधियों के रिव्यू का अधिकार मिलना चाहिए। जनता को इसलिए क्यूंकि जनप्रतिनिधियों का इनसे सीधा संबंध है और नौकरशाहों को इसलिए क्यूंकि वो जनता और नेता के बीच की अहम कड़ी हैं। वे ही हैं जो जानते हैं किस नेता का गिरेबान कितना काला और कितना सफेद है। दोनों के हाथ में रिव्यू देना इसलिए ज़रूरी है क्यूंकि समूची जनता का बौद्धिक स्तर ज़रूरी नहीं इतना हो कि वो मार्केटिंग के बहकावे से बच पाए। और नौकरशाह भी तो नेता के प्रभाव में आ सकते हैं, इसलिए सिर्फ उनका ही रिव्यू मान्य नहीं होना चाहिए। ब्यूरोक्रेसी में भी नेता को रिव्यू करने का अधिकार आईएएस, आईपीएस और आईआरएस जैसे अधिकारियों को मिलना चाहिए। क्यूंकि ये वो लोग हैं जो एक पूरे ज़िले की देख-रेख कर रहे हैं और विश्व की कठिनतम परीक्षाओं में से एक को उत्तीर्ण कर इस पद तक पहुँच पाते हैं। लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन? क्यूंकि ये अधिकार आपको मिलेगा या नहीं इसका फैसला भी तो बिल्लियाँ ही करेंगी। और कोई भी बिल्ली अपने गले में घंटी बर्दाश्त नहीं करेगी बशर्ते बिल्ली ईमानदार हो। बात करके देखिए ज़रा अपनी बिल्ली से। (8 अगस्त 2022 को प्राथमिक मीडिया साप्ताहिक समाचार पत्र में प्रकाशित संपादकीय)
लोकतंत्र में डीआरएस की सुविधा!
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