लोकतंत्र का महापर्व कहा जाने वाला चुनाव लगभग सिर पर है। एक बार फिर जनता के पास मौका होगा अपने जनप्रतिनिधियों के पिछले पाँच साल में किये वादों और उन पर अमल, साथ ही किये गए कामों की समीक्षा करने का। हालांकि व्यवस्था तो कुछ ऐसी होना चाहिए कि जैसे हर साल आपको आय का लेखा-जोखा सरकार को देना पड़ता है वैसे ही जनप्रतिनिधियों को भी हर साल अपने काम का लेखा-जोखा जनता के समक्ष रखना चाहिए। लेकिन ऐसी व्यवस्था लाये कौन? जो ऐसी व्यवस्था ला सकते हैं वो ऐसा करके अपने ही गले में घंटी क्यूँ बाँधेंगे? चूंकि यह कार्य व्यवस्थापिका का है इसलिए न्यायपालिका इसमें दखल शायद ही दे। और अगर वो दखल देने भी लगे तो संसद अपने विशेषाधिकारों की दुहाई देने लगेगी। बहरहाल मुंगेरीलाल के हसीन सपने से बाहर आते हैं और यथार्थ की बात करते हैं। सूचना क्रांति और सोशल मीडिया के इस दौर में अपने काम का क्रेडिट लेने या जनता को ये बताने “हम ये करने वाले हैं या हमने ये किया है” का उद्देश्य पूरा करने के लिए प्रतिदिन 2 करोड़ रुपये खर्च करना पड़े तो ये कैसी आत्मनिर्भरता और मेक इन इंडिया है? जी हाँ, लोकसभा में दिए गए जवाब में सरकार ने बताया था कि वर्ष 2014 से दिसंबर 2022 तक प्रिन्ट मीडिया को 3230.77 करोड़ और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 3260.79 करोड़ के विज्ञापन दिए गए। यानि आठ साल सात महीने में विज्ञापन पर 6491.56 करोड़ रुपए खर्च किए गए।
एक सर्वे के मुताबिक भारत में 30 प्रतिशत परिवार मध्यम वर्गीय हैं। ये वो परिवार हैं जो घर के कार्यक्रम का बजट कंट्रोल करने के लिए व्हाट्सएप पर ही इन्विटेशन भेजने लगे हैं। महीने का बजट न बिगड़ जाए इसलिए सब्ज़ी में टमाटर रोज़ नहीं डालते। दाल में धनिया की चंद पत्तियां ही डालकर काम चला लेते हैं। प्याज़ जब सस्ती होती है तो उसकी एक बोरी खरीदकर रख लेते हैं और कई महीनों तक उसका इस्तेमाल करते हैं। गाड़ी का पेट्रोल बच जाए इसलिए ढालान में इंजिन बंद कर लेते हैं। एक ही शर्ट को हफ्ते में तीन बार भी पहन लेते हैं। टूथपेस्ट को पापड़ बनाकर उसका पूरा दाम वसूलते हैं। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए अपने घूमने के शौक को मार देते हैं। एक मध्यम वर्गीय परिवार न जाने क्या-क्या जुगाड़ करके अपना खर्च बचाता है। वहीं उनके द्वारा ही चुनी गई सरकार रोज़ दो करोड़ से ज़्यादा के सिर्फ विज्ञापन ही दे रही है! सरकारी दफ्तरों और सरकारी वेबसाइट्स पर तो वैसे ही आपका पर्याप्त प्रचार हो रहा है। सोशल मीडिया पर भी हर विभाग से लेकर जनप्रतिनिधि मौजूद हैं। उनसे भी तो जनता डिजिटली जुड़ी हुई है। और दफ्तरों की दीवारों पर भी तो फ्लेक्स से लेकर आवेदनों पर हर योजना और उसका लाभ देने वाली सरकार का नाम भी लिखा ही है। आम जनता को तो अपने दस्तावेज़ों या योजनाओं का लाभ लेने के लिए यहाँ से वहाँ चक्कर तो काटना ही पड़ता है। तब वो आपका नाम देखते ही हैं। फिर ऐसे में अलग से विज्ञापन करके जताने की आवश्यकता क्यूँ पड़ रही है? बात यहाँ खत्म नहीं होती। इतना खर्च करने और पूरे पाँच साल अपनी कथनी और करनी का राग अलापने के बाद जब चुनाव का समय आता है तो उसके ठीक पहले एलईडी स्क्रीन पर अपने कामों का क्रेडिट लेने के लिए विडिओ चलने लगेंगे और जगह-जगह होर्डिंग भी लग जाएगी। ज़ाहिर सी बात है कि इन पर खर्च होने वाला पैसा आपकी सेविंग्स का तो बिल्कुल नहीं है। क्या जनता इतनी भुलक्कड़ है कि आपने पाँच साल क्या किया उसे याद नहीं है? या जनता को आप इतना आत्मनिर्भर नहीं बना पाए कि वो अपना जनप्रतिनिधि बिना प्रचार-प्रसार के बहकावे में आए अपने बुद्धि-विवेक से चुन ले? या भारत अभी भी डिजिटल इंडिया नहीं बन पाया है? क्या मतलब ऐसी नेतागिरी का जब विज्ञापन करके खुदकी पीठ थपथपाना पड़े और अपने काम के बारे में भी बताना पड़े? अगर हक़ीक़त में काम किया तो जनता जरूर आपको चुनेगी। डरने की क्या जरूरत? सोचने वाली बात है… है कि नहीं?