जेठ की तपती दुपहरी,
पसीने से लथपथ माँ,
अपने पल्लू से चेहरे को,
पोंछते हुए रसोई में,
दीवार का सहारा लेकर,
खड़ी हुई सेंक रही है रोटियां,
माँ मेरा बैग कहाँ है,
मैने आवाज लगाई,
अपने पल्लू से हाथ पोंछते हुए,
रसोई से बाहर निकल कर,
वो मेरे कमरे में आई,
मेरा बैग निकाल कर,
मुस्कुराकर मेरे हाथों में थमाया,
अभी वो पुनः रसोई में जाती,
उससे पहले ही बहन का पैगाम आया,
माँ मेरा टिफिन किधर है?
भागते कदमों से माँ ने,
उसे भी टिफिन थमाया,
बहन को टिफिन देने से पहले ही,
पिता जी का, बुलावा आया
सुधा, जरा इधर तो आना,
मेरे मोजे नहीं मिल रहे हैं!
माँ रसोई का रुख करने से पहले,
पिता जी की आवाज की
दिशा में दौड़ी, उनके हाथ में मोजे,
पकड़ा कर पलटी जैसे ही,
दादा जी ने तेज स्वर में कहा,
बहू मेरी दवाईयां कहाँ हैं?
माँ ने जैसे ही दवाओं की थैली,
दादा जी को पकड़ाई,
दूसरी तरफ से दादी की आवाज आई,
बहू मेरी चाय का क्या हुआ,
अब तक तूने क्यों नहीं बनाई?
दादी की चाय बना उनको,
माँ ने मुस्कुराकर थमाई,
फिर जैसे-तैसे सारे कामों से,
निपटकर वो आराम करती,
वैसे ही किसी ने,
दरवाजे की घंटी बजाई,
माँ ने भागकर दरवाजा खोला,
सामने खड़ा था दूध वाला,
दूध का पैकेट लेकर,
जैसे ही माँ अंदर आई,
वैसे ही पुनः दरवाजे की घंटी बजी,
माँ ने जाकर दरवाजा खोला,
तभी काम वाली ने कहा,
कब से घंटी बजा रही थी मैं,
दरवाजा क्यों नहीं,
खोल रहीं थी भाभीजी?
माँ बिना कहे कुछ उससे,
दरवाजे से परे हट गई,
वह अंदर घुसकर आई,
जैसे वो है घर की मालकिन,
और माँ हैं कामवाली बाई,
काम करते हुए, कामवाली ने,
दादी जी के साथ मिलकर,
दो-चार घरों की,चुगली सुनाई,
जिसे सुनकर माँ,
मन ही मन भुनभुनाई,
पर दादी के प्रवचन,
हो ना जाएं कहीं शुरू,
इसलिए, बोल जुबां तक ना लाई,
माँ ने झटपट से चौका किया साफ,
तभी बाहर सड़क पर,
सब्जी वाले ने टेर लगाई,
थामकर एक टोकना,
पैरों में फंसाकर स्लीपरें,
माँ सड़क पर निकलीं,
सब्जियों का करके मोल-भाव,
उन्होंने अपनी जरूरत की,
सब्जियां, अपने टोकने में भरवाई,
सब्जी के चुकाकर पैसे,
वो अपने भीतर आईं
और दोपहर के भोजन के,
इंतजाम में समाईं,
भोजन बनाकर दोपहर का,
दादाजी और दादी को परोसा,
दोनों के नखरे हुए शुरू,
किसी को था नमक-मिर्च कम,
तो किसी को था अधिक मसाला,
पर किसी को दिखा नहीं,
माँ, के हाथ-पैरों का छाला,
दिन भर दौड़ते-भागते हुए,
दिन का हुआ सफर पूरा,
और रात की बेला आई,
शुरू हुआ फरमाइशों का दौर,
दर्द से माँ की आँखेँ भर आईं,
फिर भी किया सबका मान पूरा,
सबको अलग-अलग व्यंजन बनाई,
आया फिर खाने का दौर,
जब इकट्ठे हुए सब टेबल पर,
सबने माँ के हाथ के बने खाने की,
अलग-अलग कमियां गिनाई,
तानों की हुई बौछार शुरू,
क्या करती हो दिनभर घर पर,
एक खाना बनाना ही काम है,
वह भी ढंग का नहीं होता,
ऐसे खाने को मुंह में,
डालने का मन ही नहीं होता,
माँ ने सुनी सबकी जली-कटी बातें,
मुँह में रखा बंद फिर भी,
अलीगढ़ का बड़ा सा ताला,
उसके हाल तो ऐसे हैं,
जैसे कोई बड़ा गुनाह हो कर डाला,
फिर भी अपनी ड्यूटी समझ,
उसने सबको खाना खिला,
खुद भी अनमने मन से,
अपने भी मुँह में डाला निवाला,
फिर समेटकर रसोई
और टेबल का खाना,
उसको फ्रिज में डाला,
सबसे फारिग हुई जैसे ही,
चेक किए घर के सभी,
खिड़की और दरवाजे,
फिर बुझा कर घर की बत्तियां,
एक निगाह सब पर डाली,
जहाँ सब ले रहे थे,
जोर-जोर के खर्राटें,
उसने अपने को भी किया,
बिस्तर के हवाले,
सब सोच-सोच कर थी हैरान,
हाथ पैरों से अधिक थे,
माँ के हृदय पर छाले!
समाकर बिस्तर में,
पड़ा था शरीर निढाल सा,
पर मन था दौड़ रहा,
रेस के घोड़े सा सरपट,
आज तक तो सुनती आ रही थी,
सुबह और शाम के ताने,
लेकिन शुरू होंगी कल से,
छुट्टियां गर्मियों की,
तब शुरू होगा मेरा सफ़र
जिसमें सुबह से शाम तक,
तानों के नाश्ते से,
रात के भोज तक,
ताने ही मेरे आहार होंगे,
कभी-कभी तो लगता है,
माँ, बहन, बेटी, या पत्नी होना,
क्या कोई अपराध है?
जहाँ, बिना किए फिक्र अपनी,
जुटी रहती है दिनभर चाहे,
माघ का हो जाड़ा,
या फिर जेठ की गर्मी,
अथवा भादों की बरसात हो!
मेहनत नहीं अखरती,
यदि मेहनत का कोई,
सच्चा कदरदान है!
क्योंकि मेहनत सभी,
महिलाओं के लिए,
खुदा की रहमत और वरदान है
स्वरचित © अनिला द्विवेदी तिवारी
एम ए, एलएल एम, पीजीडीसीए, एमएसडब्ल्यू
347/3 शुक्ला नगर मदन महल जबलपुर