माथे का पसीना अपने दुपट्टे से पोंछती हुई, नियति किचन से निकल कर आई और लिविंग रूम में रखे सोफे पर, धम्म से बैठ गई। थकान से पूरा श रीर दर्द कर रहा था उसका। सितंबर का महीना था और पितृपक्ष चल रहे थे। आज उसके ससुर जी का श्राद्ध था। बस थोड़ी देर पहले ही पण्डित जी और कुछ रिश्तेदार भोजन ग्रहण कर घर से गए थे।
सबने उसके हाथ के बनाए भोजन की खूब तारीफ़ की थी,खासकर उसकी बनाई हुई खीर सबको खूब पसंद आई थी। सभी मेहमान तृप्त होकर गए थे। इस बात की संतुष्टि साफ झलक रही थी नियति के चेहरे पर।
कहते है यदि पितृ श्राद्ध में भोजन करने वाले लोग तृप्त होकर जाएं तो समझ लीजिए आपके पितृ भी तृप्त हो गए।
“चलो ज़रा खीर चखी जाए । मैं भी तो देखूं कैसी बनी है खीर, जो सब इतनी तारीफ कर रहे थे।”
बुदबुदाते हुए नियति, एक कटोरी में थोड़ी सी खीर लिए वापस लिविंग रूम में आ गई। ड्राई फ्रूट्स से भरी हुई खीर वाकई बहुत स्वदिष्ट बनी थी।
वैसे नियति को मीठा ज्यादा पसंद नही था। पति और बच्चे भी मीठे से ज्यादा ,चटपटे व्यंजन पसंद करते थे तो खीर घर में कभी कभार ही बनती थी।
पर एक व्यक्ति थे घर में ,जो खीर के दीवाने थे। वो थे नियति के ससुर , स्वर्गीय मणिशंकर जी। वे अक्सर अपनी पत्नी ,उमा से खीर बनाने को कहा करते और उमा जी भी ,खूब प्रेम से उनके लिए खीर बनाया करती किंतु उमा जी के स्वर्गवास के बाद सब बदल गया।
एक बार मणि शंकर जी ने नियति से कहा ” बहु थोड़ी खीर बना दे ,आज बहुत जी कर रहा है खीर खाने को।”
इतना सुनते ही नियति उन पर बरस पड़ी थी
” क्या पिता जी, आपको पता है ना घर में आपके अलावा और कोई खीर नहीं खाता। अब मैं स्पेशली आपके लिए खीर नहीं बना सकती और भी बहुत काम रहते है मुझे घर पर ,और बुढ़ापे में इतना चटोरापन अच्छा नहीं। “
बहु से इस तरह के व्यवहार की कल्पना भी नहीं की थी मणिशंकर जी ने। दिल को बहुत ठेस पहुंची थी उनके। उस दिन वे अपनी स्वर्गवासी पत्नी को याद कर, खूब रोए। बस उस दिन से उन्होंने नियति से कुछ भी कहना बंद कर दिया।कभी कभी बहुत इच्छा होती उन्हें खीर खाने की। पर बहु के डर से उन्होंने अपनी इस इच्छा को भी दबा दिया।
कुछ दिन बाद मणि शंकर जी भी इस संसार को छोड़ चले गए। परंतु खीर खाने की इच्छा उनके मन में ही रह गई।
कहते हैं श्राद्ध में पितरों का मनपसंद भोजन यदि
पंडितों को खिला दो तो पितृ देव प्रसन्न हो जाते हैं इसीलिए तो आज नियति ने खीर बनाई थी।
” चलो आज बाबूजी की आत्मा को भी तृप्ति मिल गई होगी। उनकी मनपसंद खीर जो बनाई थी आज ।” नियति मुस्कुराते हुए बुदबुदाई और बची हुई खीर खाने लगी।
तभी उसके कानो में एक आवाज सुनाई दी ” बहु थोड़ी खीर खिला दे आज बहुत जी कर रहा है खीर खाने का।”
एक बार, दो बार, कई बार ये आवाज नियति के कानों में गूंजने लगी।
ये उसके ससुरजी की आवाज़ थी। नियति थर थर कांपने लगी। उसने सुना था कि पितृ पक्ष में पितृ धरती पर विचरण करते है। डर के मारे नियति के हाथ से खीर की कटोरी छटक कर ज़मीन पर गिर गई।
उसने दोनो हाथ अपने कानों पर रख दिए। उसे अपने ससुर जी से किया हुआ दुर्व्यवहार याद आ गया। अनायास ही उसके आंखों से पश्ताचाप की अश्रु धारा फूट पड़ी।
अब कमरे में एक अजीब सी शांति थी। सब कुछ एक दम शांत । अशांत था तो बस, नियति का मन। वो अब ये जान गई थी कि जो तृप्ति आप एक मनुष्य को उसके जीते जी दे सकते है, वो तृप्ति आप उसके मरणोपरांत, हजारों दान पुण्य या पूजा पाठ से कभी नहीं दे सकते इसलिये बुजुर्गों की जीतेजी सेवा मरणोपरांत श्राद्ध कर्म से बहुत बेहतर है।
डॉ नरेंद्र त्रिपाठी (रचनाकार)