हाल ही में हिन्दी सिनेमा की कुछ फिल्मों ने अपनी पटकथा के चलते लोगों के बीच चर्चा का विषय बनीं। इन फिल्मों में देश के ऐसे मुद्दों को उछला गया जिन्होंने लोगों के विचारों में उथल-पुथल मचा दी। कश्मीर फ़ाइल्स और केरला स्टोरी जैसी फ़िल्म्स ने ग्राउन्ड लेवल पर सक्रिय संगठनों से लेकर व्हाट्सएप पर मौजूद तथाकथित कट्टरपंथियों को चर्चा-बहस और आरोप-प्रत्यारोप का मौका दिया। इस दौरान जिस तथ्य को लेकर वैचारिक हमले किए जा रहे थे उसे कोर्ट ने केरला स्टोरी फ़िल्म प्रदर्शन के दौरान तथ्यों को सुधारकर पेश करने को कहा। लेकिन जिन्हें बोलने का मौका चाहिए, उन्होंने यहाँ भी बोलने का मौका ढूंढ लिया। फिल्म को कुछ राज्यों में टैक्स फ्री किया गया और कुछ राज्यों में इसकी मांग होती रही और कुछ राज्यों में ने कुछ संगठनों ने मुफ़्त में ये फिल्म लोगों को दिखाई। खासतौर से महिलाओं और लड़कियों को। इसके लिए लोगों से चन्दा भी एकत्रित किया गया और पूरे के पूरे शोज़ बुक किए गए। इसके चलते दोनों फिल्मों को बड़ा फ़ायदा हुआ।
इस सबके के बीच में इंटरनेट पर मौजूद एक ott प्लैट्फॉर्म netflix पर एक फिल्म आती है “कटहल”, जो बहुत छोटे-छोटे सामाजिक मुद्दों पर प्रहार करती है। ऐसे मुद्दे जो आज़ादी के पहले से आज भी मारे बीच सिर उठाए घूम रहे हैं। चाहे वो जात-पात हो, या निम्न या असहाय वर्ग की समस्याओं को नज़रअंदाज़ करना, या फिर राजनीतिक रसूख का गलत इस्तेमाल करना। लेकिन धार्मिक कट्टरवाद के सामने शायद ये सब समस्याएँ छोटी हैं। फिल्में समाज का आईना होती हैं। समाज में जो कुछ घटित हो रहा है उससे प्रेरित होती हैं। फिल्ममेकर्स क्रिएटिव लिबर्टी लेकर तथ्यों को तोड़-मरोड़कर भी पेश करते हैं। लेकिन आज जो अंधवाद चल रहा है, उसके पीछे चलने वाले लोगों को फिल्मों में केवल वो दिखता है जो वो देखना चाहते हैं और उन्हें फ़ैक्ट की तरह पेश करके लोगों को गुमराह भी करते हैं। खैर, कटहल में ऐसा कुछ नहीं है जिससे विभिन्न संगठन “quote” करके अपना अजेन्डा सेट कर सकें। इसलिए शायद ये फिल्म उन तक नहीं पहुँच पायी। यशोवर्धन मिश्रा द्वारा लिखित और सान्या मल्होत्रा के मुख्य किरदार वाली कठहल में हल्की-फुलकी कॉमेडी के बीच में आपको सामाजिक व्यंग्य भी मिलेंगे। फिल्म का प्लॉट एक विशेष प्रजाति के दो कटहलों की चोरी पर आधारित है। फिल्म में वो कटहल विजय राज के राजनैतिक करियर को बूस्ट करने के लिए बहुत ज़रूरी हैं। जिसके लिए पुलिस महकमे को उन्हें ढूँढने के पीछे लगा दिया जाता है। लेकिन ठहरिए, क्या पुलिस के पास चोरी हुए कटहल ढूँढने से ज़्यादा ज़रूरी काम नहीं है? ऐसे बहुत से सवाल और एक बड़ा ट्विस्ट इस फिल्म में मौजूद है। फिल्म का निर्देशन, आर्ट डिपार्ट्मन्ट की बारीकियाँ और कलाकारों का अभिनय दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ने में सफल हुए हैं।
जबलपुर के कलाकारों से भरी हुई है फ़िल्म – फिल्म में संस्कारधानी के रघुबीर यादव, आशुतोष द्विवेदी, अंशुल ठाकुर, भगवान दास पटेल (बी.डी. भैया), बी. के. तिवारी भी मौजूद हैं। हालांकि चारों छोटे-छोटे किरदार के लिए फिल्म में नज़र आते हैं। लेकिन किरदारों के बिना फिल्में अधूरी होती हैं। रघुबीर यादव लंबे समय से हिन्दी सिनेमा में काम कर रहे हैं। उनका अभिनय हमेशा की तरह बढ़िया है। पुलिस अधिकारी के तौर पर आशुतोष अपनी छाप छोड़ने में सफल हुए हैं। वहीं अंशुल ठाकुर ने भी अपने किरदार में जान डालने के लिए जो मेहनत की है वो दिखाई देती है। दोनों ही जबलपुर की नाट्यकला संस्थाओं से लंबे समय से जुड़े रहे हैं। फिल्म में नेहा सराफ़, आराधना परस्ते भी हैं जिनका जबलपुर के थिएटर्स से जुड़ाव रहा है। साथ ही संगीत के क्षेत्र की जानी-मानी हस्ती डॉ. तापसी नागराज की भी इस फिल्म में झलक दिखाई देती है।