राजेन्द्र चंद्रकांत राय ने अपने लेख में तथ्यों के आधार पर बताया कब, कहाँ क्या हुआ...
केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ग्वालियर के अपने राजमहल में 164 साल बाद झांसी की रानी लक्ष्मी बाई को एक महान् योद्धा के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए कहते हैं, ‘एक कविता से इतिहास नहीं बदला जा सकता है। यह भ्रम फैलाया गया कि सिंधिया राजवंश ने रानी लक्ष्मीबाई का साथ नहीं दिया था।’ ऐसा कहते हुए वे यह भूल जाते हैं कि यदि सिंधिया राजवंश ने रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया था, तो 164 सालों तक उनके प्रति उस राजवंश का दुराव क्यों बना रहा। वे इतिहास की तरफ पीठ करके ही ऐसी बातें कर रहे हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान के अमरगीत ‘झांसी की रानी’ को सिंधिया राजवंश के बारे में भ्रम फैलाने वाली कविता बताने के लिये हम ज्योतिरादित्य सिंधिया की कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान ने ‘झांसी की रानी’ गीत की रचना, स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में, जबलपुर कारागार में की थी। सन् 1930 ईस्वी में उनका पहला काव्य संग्रह ‘मुकुल’ का प्रकाशन हुआ था। इसी संग्रह में ‘झाँसी की रानी’ गीत भी संग्रहित है।
सुभद्रा जी स्वाधीनता आंदोलन के दौरान स्वयं ही ‘झांसी की रानी’ गीत को गाकर सुनाया करती थीं। वे अपने कथ्य और संवेदना को सरलतम और जनभाषा में अभिव्यक्त करने में निपुण थीं। यह गीत, सुनने वालों को जोश से भर देता था। उनकी इस रचना की लोकप्रियता और आम लोगों पर उसका प्रभाव देख कर, अँग्रेजों ने उसे जब्त कर लिया था।एनसीईआरटी ने भी इसी साल,‘नयी शिक्षा नीति’ के लागू होते ही अपनी स्कूली पाठ्यपुस्तकों से इस गीत को हटा कर अंग्रेजों के पद्चिन्हों पर चलने का ही काम किया है। सुभद्रा जी के इस गीत में एक पंक्ति इस तरह आती है- ‘अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी।’ यह पंक्ति गीत-रचना के लिये चुनी गयी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की शौर्यगाथा के कथानक का ही एक हिस्सा है, जो इतिहास-सिद्ध भी है। क्रिस्टोफर हिबर्ट ने अपनी विख्यात किताब, ‘द ग्रेट म्यूटिनी इंडिया : 1857’ में लिखा है, ‘‘उन्होंने (विप्लवकारियों ने) यह फैसला किया कि वे ग्वालियर कूच करेंगे। दरअसल ब्रिटिश अफ़सर की अगुवाई वाली ग्वालियर की एक सैन्य टुकड़ी के द्रोह करने के बावजूद उन्हें यह भरोसा था कि युवा महाराजा (जयाजीराव) सिंधिया की सेना को साथ देने के लिये मनाया जा सकता है, जिसमें दो हजार से ज्यादा जांबाज सिपाही मौजूद हैं। महाराजा (जयाजीराव सिंधिया) अब भी इसी राय के पक्षधर बताये जा रक थे कि ब्रिटिशों को कभी शिकस्त नहीं दी जा सकती। विप्लवकारी अगुवाओं ने ग्यारह हजार सिपाहियों और बारह तोपों के साथ ग्वालियर मार्च शुरु कर दिया। महाराजा (जयाजीराव सिंधिया) ने उन्हें मुरार के निकट टक्कर दी लेकिन एक चक्र गोलीबारी के बाद ही उनकी तोपों पर कब्ज़ा कर लिया गया। इस अप्रत्याशित हादसे ने महाराजा की सेना को विप्लवकारियों का साथ देने के लिये प्रेरित किया। उनके (जयाजीराव सिंधिया के) निजी अंगरक्षकों ने रुकने का निर्णय लिया, परंतु शीघ्र ही महाराजा को अपने अंगरक्षकों सहित आगरा की सुरक्षा हेतु कूच करने पर मज़बूर होना पड़ा।’’ (प्रकाशक, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण, 2008, पृष्ठ 459) यह एक अंग्रेज लेखक के द्वारा लिखी गयी किताब है, इसलिये जरा नरम भाषा में कहा गया है, कि ‘महाराजा को अपने अंगरक्षकों सहित आगरा की सुरक्षा हेतु कूच करने पर मज़बूर होना पड़ा।’
भारतीय लेखक श्री जगदीश जगेश अपनी पुस्तक, ‘कलम आज उनकी जय बोल’ में लिखते हैं, ‘‘ यहाँ (22 मई, 1857 को क्रातिकारियों का दल ग्वालियर पहुंचा था) राजा (जयाजीराव) सिंधिया के विरुद्ध विद्रोह करके (उनकी) सेना क्रांति में सम्मिलित हो गयी। सिधिंया आगरा भाग गया।’’ (प्रकाशक, हिंदी प्रचार संस्थान, 1989, पृष्ठ 34)
यानी जयाजीराव सिंधिया तो अंग्रेजों के साथ बने रहे, परंतु उनकी सेना ग़दर के साथ हो गयी थी।
सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने इसी प्रसंग को अपने उपन्यास -झांसी की रानी’ में इस तरह से लिखा है, ‘‘रानी लक्ष्मीबाई ने अपने डेढ़ सौ घुड़सवारों को लेकर आगे आकर सिंधिया की गति को रोक दिया। उसे देख कर जैसा सुना था वैसी असहाय तो सिंधिया को वे नहीं लगीं। इस बीच तात्या और बांदा के नवाब आगे आ गये। तात्या का सांवला रंग, दृढ़ संकल्पपूर्ण चेहरा देख कर शंकित सिंधिया जब सहायता के लिये कातर होकर अपने सरदारों की तरफ देखते हैं, तब भारतीयों की तरफ से एक सैनिक तलवार हाथ में लेकर आगे आ गया। सारे भारतीय नेतागण साथ-ही-साथ तलवार ऊंची करके समवेत स्वर में गर्जन कर उठे- दीन! दीन हर हर महादेव! उसी समय सिंधिया की सारी सेना यन्त्रचालित की तरह भारतीय पक्ष में जाकर खड़ी हो गयी। ‘‘स्थिति पूरी तरह अपने प्रतिकूल देख कर सिंधिया अपने कुछ देहरक्षकों के साथ निकटवर्ती एक पहाड़ की तरफ भाग गये। पीछा करके भारतीय सैनिकों ने प्रायः साठ देहरक्षकों को मार दिया। ‘‘ इसके बाद भगोड़े सिंधिया द्रुतगति से फूलबागवाले प्रासाद में जाकर पोशाक बदलकर आगरा के रास्ते धौलपुर की ओर भाग गये।’’ (प्रकाशक, राधाकृष्ण पेपरबैक्स, हिंदी अनुवाद राधाकृष्ण प्रकाशन, सन् 2000, पृष्ठ 243)
लॉर्ड कैनिंग ने कुल तीन दरबार किए थे। पहला दरबार उस समय किया था, जब भारत में स्वाधीनता पाने के लिये विप्लवी शुरुआत होने को थी। उस समय अंग्रेजों की प्राथमिकता थी , देसी राजाओं-नवाबों को अपने साथ रखना। उस पहले दरबार में ग्वालियर से जयाजी राव सिंधिया भी गए थे। ‘जयाजी विजय” शीर्षक किताब के लेखक सरदार फालके के दादा उस दरबार में जयाजी राव सिंधिया के साथ गए थे और उन्होंने सिंधिया को अंग्रेजों के प्रति वफ़ादारी की क़समें खाते हुए अपनी आांखों से देखा था। कैप्टन मैक्फ़र्सन 1857 की ग़दर के समय ग्वालियर में रेज़ीडेंट पद पर था, उसने भी अपनी डायरी में जयाजी राव द्वारा झांसी की रानी के विरुद्ध मोर्चा बनाने की बात लिखी है। विनायक दामोदर सावरकर ने भी अपनी पुस्तक ‘1857, भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम’ में यह तथ्य स्वीकार किया है।
खोजने पर बहुत सी किताबें और उद्धरण मिल जायेंगे। इतिहास आखि़र इतिहास होता है। उसे दबाया, छिपाया या मिटाया नहीं जा सकता। यह ज्यादा अच्छा होता यदि वे अपने पूर्वजों के कृत्य के लिये सार्वजनिक क्षमा याचना करते और प्रायश्चित करने का संकल्प भी लेते। ऐसा करने की बजाय, उन्होंने एक ओछा रास्ता चुना और स्वाधीनता सेनानी कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान पर ही निम्नस्तरीय आरोप जड़ दिया। उनके इस आचरण की जितनी भी भर्त्सना की जाये, कम ही होगी।
राजेंद्र चंद्रकान्त राय, रमाकान्त श्रीवास्तव, सुधीर सक्सेना, कल्बे कबीर, संगम पाण्डे, श्रीकान्त चौधरी, राजेश बहुगुणा, वरयाम सिंह, उमाशंकर सिंह परमार, मोहन कुमार डेहरिया, रामदेव धुरंधर, श्याम कटारे, अनामिका तिवारी, हर्ष तिवारी, मुकुल यादव, नंदलाल, डॉ आभा दुबे, प्रो मगनभाई पटेल, मोहन नागवानी, राजेंद्र सिंह ठाकुर, आनंद नेमा, सुनीता श्रीनीति, खुशी शाह, निर्मला गर्ग, शशि काशीकर, किंशुक तिवारी, अनिरुद्ध सिन्हा, राजीव शंकर गोहिल, राजकुमार सिन्हा, सत्येंद्र तिवारी, दुर्गा प्रसाद बाजपेई, वीरेंद्र मोहन, बनास जन, केशव तिवारी, वरयाम सिंह, अनिरुद्ध सिन्हा, नवीन चौबे, राजेश उत्साही, सुशीला पुरी, विनोद बिहारी दास, ग़ज़ल नशीने, विनय अंबर, रामलाल भारती, अपूर्व, राजेंद्र राजन, डॉ राकेश पाठक, वीरेंद्र मोहन, एकता मंडल, लोक बाबू।