संस्कारधानी में कोई बात निकले और दूर तलक न पहुँचे, ऐसा नामुमकिन है। एक बात ऐसे ही निकल आई है। दोस्त कहें, हितैषी, समर्थक या कबीला! लेकिन ये जो भी हैं, उससे तो नाराज़ हैं जिसे कुछ महीनों पहले सिर-आँखों पर बैठाकर उस किले का सरदार बनाया जिसके लिए दर्जनों लोग कोशिश में थे। किले का सरदार बनते ही उस सरदार के बचपन के कुछ साथियों ने उसे घेर लिया। और उन्होंने उस सरदार के इर्द-गिर्द ऐसे घेराबंदी कर दी कि कोई और सरदार के करीब न आ सके। अब सरदार के ऊपर किले के साथ-साथ उसकी सीमा में रहने वाले लोगों के प्रति कुछ ज़िम्मेदारियाँ भी हैं। तो सरदार उसमें व्यस्त रहने लगा, जो समय बचता वो उसके समीप रहने वाले लोगों के साथ चला जाता। सरदार को उन लोगों से मिलने नहीं दिया जाता या सरदार खुद नहीं मिलता, जो उसके उस किले का सरदार बनने के सफर में न सिर्फ शामिल रहे बल्कि उन्होंने उसे सरदार बनाने के लिए काफी संघर्ष भी किया। लेकिन कहते हैं किसी इंसान की सही पहचान तब होती है जब उसके पास कोई बड़ा पद, शक्ति, सत्ता, धन या स्त्री आ जाए। उन दोस्तों और कबीले वालों को सरदार की पहचान धीरे-धीरे होने लगी। जब ज़्यादातर उनके साथ रहने वाला सरदार अब गाहे-बगाहे भी उनसे मिलने न आता। बुलाने पर नहीं आता, न किसी के जन्मदिन में और न किसी कि विदाई में। अब दिवाली आ रही है और उसके कुछ सालों बाद फिर अलग तरह की सरदारी का दावा करने का वक़्त भी। सरदार ने दिवाली के पहले खबरनवीसों को तोहफे बांटे हैं, बैठकें कर रहे हैं और मिलन समारोह भी। हालांकि इन सबमें कबीले के पुराने लोग और दोस्त नहीं पहुँचे। दिवाली में प्रभु राम वनवास से लौटकर और रावण से जीतकर आयोध्य लौट आए थे। सरदार भी लौटेंगे या नहीं या लौटने में पाँच साल लगेंगे, ये सरदार बताएंगे या तो समय।
शुभ दीपवाली